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कविता

फिर तुम्हाररी याद के ये पाहुने

मधु शुक्ला


इस झड़ी में बंद सारे रास्‍ते
आ गए सागर-सरोवर लाँघते
फिर तुम्‍हारी याद के ये पाहुने
इस भरी बरसात में ये पाहुने
           
पीठ पर लादे हुए अपना बसेरा
बादलों से पूछते घर-गाँव मेरा
उड़ चले फिर पर्वतों को चूमते
पंछियों की पाँत से ये पाहुने

किस तरह थामूँ उफनता क्षीर सागर
लौट जाएँ फिर न मेरे द्वार आकर
हो रही है बहुत जर्जर पर्ण-कुटिया
और झंझावात से ये पाहुने
           
द्वार की साँकल बजाता कौन लुक-छुप ?
और अँधियारा बढ़ाता पाँव गुप-चुप
कौंधते वन-वन, गगन की बीजुरी से
इस घनेरी रात में ये पाहुने

धैर्य फिर खोने लगा पीपल बिचारा
सप्‍त वर्णी देखकर आकाश सारा
खिल उठे मन के सरोवर में स्‍वयं ही
प्रात के जलजात से ये पाहुने
 


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